दिल्ली में जाट समुदाय की किस मांग पर खुद ही फंसते दिख रहे केजरीवाल 

दिल्ली में जाट समुदाय की किस मांग पर खुद ही फंसते दिख रहे केजरीवाल 

नई दिल्ली। दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बीच आप नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बीते सप्ताह जाट समुदाय को दिल्ली में ओबीसी की केंद्रीय सूची में डालने का मुद्दा उठाया था। केजरीवाल का आरोप था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार बीते 10 सालों से मामले को दबाए बैठी है। वहीं केजरीवाल के आरोपों पर भाजपा ने जवाब दिया था कि दिल्ली सरकार को प्रस्ताव को पहले विधानसभा से पारित कराना चाहिए था। फिर उस प्रस्ताव को केंद्र सरकार को भेजने पर मुहर लगती। इसके बाद अब पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी आप के दावों का जवाब दिया है। पिछड़ा वर्ग आयोग का कहना है कि बीते 10 सालों में दिल्ली सरकार से ऐसा कोई प्रस्ताव ही नहीं भेजा गया, जिसमें मांग की गई हो कि राजधानी के जाटों को दिल्ली में केंद्र की सूची में शामिल करे।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष हंसराज अहीर ने बताया कि बीते 10 सालों में हमें दिल्ली के जाटों को केंद्रीय ओबीसी सूची में शामिल करने का कोई प्रस्ताव नहीं मिला। ऐसा कुछ आता, तब विचार जरूर होता। दिल्ली में विधानसभा चुनाव है और इसके पहले केजरीवाल ने यह मसला उठाया था, लेकिन अब आप खुद ही मामले पर घिरती दिख रही है। दिल्ली के किशनगढ़, मुनिरका, नरेला जैसे इलाकों में जाटों की अच्छी खासी आबादी है। इसके बाद बाहरी दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के एक हिस्से में जाट मतदाता नतीजों पर असर डालने का दम रखते हैं। माना जा रहा है कि इसी रणनीति के तहत केजरीवाल ने दिल्ली के जाटों को केंद्रीय ओबीसी लिस्ट में शामिल करने की मांग उठाई है।
अहीर ने साफ कर दिया है कि दिल्ली सरकार से कोई प्रस्ताव नहीं आया। उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य के समुदाय को केंद्रीय ओबीसी सूची में शामिल करने के लिए राज्य से ही प्रस्ताव भेजा जाता है। उस प्रस्ताव से पहले संबंधित राज्य सरकार उनके पिछड़ेपन को लेकर सर्वें कराती है। इसके बाद विधानसभा में वह प्रस्ताव मंजूर होता है, और इसके बाद केंद्र को प्रस्ताव भेजा जाता है। उस प्रस्ताव पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग फैसला लेता है। अहीर ने बताया कि यूपीए के कार्य़काल में दिल्ली से दो बार जाटों को केंद्रीय पिछड़ा सूची में शामिल करने का प्रस्ताव भेजा गया था। लेकिन तब उस प्रस्ताव को खारिज किया गया था। यह प्रस्ताव पहले 2010 में भेजा गया था और फिर 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले गया था, लेकिन दोनों बार प्रस्ताव को मंजूरी नहीं मिल सकी। 

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